*झगड़ा हो तो फैसला कहाँ कराये ?*
⭕आज का सवाल नंबर ९९९⭕
आज कल मियां बीवी में या भाइयों वगैरा में झगड़ा होता है तो फ़ौरन कोर्ट -कचेरी में मुक़द्दमा -केस किया जाता है. क्या ये तरीक़ा सहीह है शरीअत इस बारे में हमें क्या तालीम देती है ?
🔵 आज का जवाब🔵
حامدا و مصلیا و مسلما
हमारी शरीअत हर ऐतिबार से मुकम्मल है उस में हर मसले, झगड़े और परेशानी का हल मव्जूद है लिहाज़ा कोई भी झगड़ा हो तो उस के बारे में अल्लाह ताला क़ुरान में फरमाते है.
فلا و ربک لا“” یؤمنون حتی یحکمکوڭ فما شجر بہنھم ثم لا یجدو
فی انفسھم حرجا مما قضیت و یسلمو تسلیما“ ( سورہ نساء آیت ۶۵)
तर्जमा : फिर क़सम है आप के रब की ये लोग ईमान दर न होंगे, जब तक ये बात न हो के उन के आपस में जो ज़गड़े वाक़िअ -उपस्थित हो उस में ये लोग आप से (और आप न हो तो आप صل اللہ علیہ وسلم वसल्लम की शरीअत से) फैसला करा दें फिर जब आप फैसला कर दें तो
उस आप صل اللہ علیہ وسلم के फैसले से अपने में (इंकार) तंगी न पावें और (उस फैसले को) पूरा पूरा (ज़ाहिर व बातिन) से तस्लीम कर लें.”
इस आयात में क़सम खाकर हक़ ताला शानहु ने फ़रमाया है के आदमी उस वक़्त तक मुस्लमान या मोअमीन नहीं हो सकता है जब तक के वह हुज़ूर صل اللہ علیہ وسلم को और हुज़ूर के बाद हुज़ूर صل اللہ علیہ وسلم के नायब -उन की जगा उलमा ए किराम के शरई फैसले को ठन्डे दिल से पूरी तरह मान न लें इस तरह के फैसले के बाद उस के दिल में कोई तंगी न पाई जाये यानि यूँ सोचना के ये शरीअत का फैसला (अल्लाह की पनाह) बराबर नहीं है इस की जगा तो में हुकूम की कोर्ट का फैसला करवाता तो वह अच्छा होता ऐसा समझना और हदीस ने बताये हुवे हुज़ूर صل اللہ علیہ وسلم के फैसले को न मानना कुफ्र है. लिहाज़ा हर मुस्लमान का फ़र्ज़ है किसी भी मसले में आपस में इख्तिलाफ की नौबत आये तो आपस में झगड़ते रहने और कोर्ट; कचेरी में गैर इस्लामी फैसला लेने के बजाये दोनों फ़रीक़ -पार्टी आप صل اللہ علیہ وسلم की शरीअत में उलमा से पूछ कर मसले -जगड़े का हल तलाश करें.
📗मारीफुल क़ुरआन हज.मुफ़्ती शफी रह.की २/४६० से ४६२ का खुलासा
واللہ اعلم
*नॉट*कोई भी झगड़ा हो उस के फैसले के लिए इस्लामी अदालत दारुल क़ज़ा हर बड़े शहर में मवजूद है
✏मुफ़्ती इमरान इस्माइल मेमन हनफ़ी गुफिर लहू
🕌उस्ताज़े दारुल उलूम रामपुरा सूरत गुजरात इंडिया
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